बकरियों की आवास व्यवस्था
पशुओं में जलवायु के साथ–साथ आवास, उपकरण एवं पालने के ढंग भी उत्पादन क्षमता को प्रभावित करते हैं। बकरियों के लिये 170°F से 270°F के बीच का तापमान एवं 15 मि.मी. पारे के नीचे की आर्द्रता काफी सुविधाजनक होती है। भारतवर्ष एशिया के दक्षिण में 8.40 उत्तर एवं 37.60 उत्तर अक्षांश तथा 68.70 पूर्व और 97.250 पूर्व देशान्तर रेखाओं के बीच स्थित है। कर्क रेखा ठीक इसके बीच में से गुजरती है। समुद्र तल से ऊँचाई, तापमान, हवा की गति, वर्षा, आर्द्रता इत्यादि के आधार पर बकरी पालन हेतु देश को विभिन्न भागों में विभक्त किया जा सकता है। हर भाग में कुछ पहाड़ी स्थान आते हैं, जिनकी आवासीय आवश्यकताएं अलग–अलग होती हैं। अन्य पालतू जानवरों की तरह बकरियों को भी साफ–सुथरे एवं हवादार स्थान में रखा जाना चाहिए, जिससे उनका समुचित विकास हो सके तथा उनकी उत्पादन क्षमता में कोई कमी न आये। गाँवों में पशुपालक अपनी दूध एवं मांस की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु थोड़ी संख्या में बकरियों को पालते हैं। अधिक उत्पादन होने पर अथवा जरूरत पड़ने पर इनका विक्रय भी करते हैं। ये किसान अपनी बकरियों को अपने घर में ही अथवा घर के पास रहने की व्यवस्था करते हैं। देश के कुछ भागों में बड़ी संख्या में बकरियों को पाला जाता है। ये बकरियाँ मुख्यत: चरकर ही अपनी आवश्यकताओं को पूरा करती है।
वर्तमान समय में बकरी पालन एक बड़े व्यवसाय के रूप में अपने को स्थापित कर रहा है। देश में अनेक व्यवसायी मांस के उत्पादन को बढ़ाने के लिए बकरी पालन हेतु आगे आ रहे हैं। आजकल बकरियों को या तो एक जगह रखकर वहीं उन्हें दाना, भूसा एवं चारा देते हैं अथवा कुछ समय के लिये चरने भेज देते है तथा साथ ही आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कुछ दाना, भूसा एवं चारा देते हैं।
जब बकरियों को अधिक संख्या में अधिक समय तक एक साथ रखते हैं, तो आवास, उनकी उत्पादन क्षमता एवं बीमारियों को भी प्रभावित करता है। साथ ही साथ इस तरह के बकरी पालन में खर्चे का अधिकांश हिस्सा दाना–चारा खरीदने में व्यय हो जाता है। इसके लिए जरूरी है कि दाने चारे के भण्डारण में तथा खिलाने में कम से कम नुकसान हो। बकरियों को खिलाने के उपकरण इस तरह के होने चाहिए कि उससे कम से कम दाना चारा गिरे एवं उसमें बकरियों का पेशाब एवं मैंगनी न जाने पाये। एक सर्वेक्षण में पाया गया कि बकरियों के आवास के प्रकार, जगह का क्षेत्रफल, वायु आने जाने का क्षेत्रफल, बनाने में लगने वाले सामान इत्यादि का विभिन्न बकरी प्रक्षेत्रों में कोई मानकीकरण नहीं है|
बकरियों पर जलवायु का प्रभाव :— विभिन्न मौसमों का प्रभाव बकरियों की श्वसन दर, हृदय गति, तापमान, पानी पीने और खाने, दूध देने की क्षमता, उनकी वृद्धि दर आदि पर पड़ता है। बकरियों के शरीर में स्थित रोम छिद्र गर्मी में अहम भूमिका निभाते हैं। इससे शरीर ठण्डा रहता है तथा तापमान को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है। बकरियों में पानी को नियंत्रित करने की अद्भुत क्षमता होती है। गर्म वातावरण में अपने को अनुकल करने के लिए कुछ बकरियों में श्वसन दर बढ़ जाती है तो कुछ पसीना निकालती हैं, जिससे त्वचा ठण्डी रहती है। अधिक ठण्ड में बकरियों में थाइरोक्सीन हारमोन का अधिक स्राव होता है, जिससे शरीर का तापमान बढ़ाने के लिए अधिक ऊर्जा का उत्पादन होता है। ऊर्जा ह्रास के कारण दूध का उत्पादन तथा बकरियों की बढ़त कम हो जाती है। आर्द्र जलवायु में वर्षा के कारण भीगने से बकरियों में न्यूमोनिया हो जाता है तथा परजीवी भी आक्रमण कर देते हैं.
बकरियों का आवास बनाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उनको अत्यधिक गर्मी,सर्दी एवं आर्द्रता से बचाया जाये तथा उन्हें साफ-सुथरे एवं हवादार आवास में रखा जाये,जिससे कि उनका उचित विकास हो दूध देने की क्षमता बढ़े, बीमारियाँ कम हों तथा मृत्युदर घटे।
बकरियों को आवासीय स्थान की आवश्यकता :- बकरियों को आवास में छत से ढ़की एवं खुली दोनों जगहों की जरूरत पड़ती है। ढ़की जगह में जानवर धूप, ओस एवं वर्षा से बचता है तथा खुली जगह (बाड़ा) में वह आराम तथा व्यायाम करता है। पूरे आवास का 1/3 ढ़की जगह के रूप में तथा 2/3 हिस्सा बाड़े के रूप में रखा जाता है। बकरे एवं बकरियों को उनकी उम्र अनुसार जगह की आवश्यकता घटती–बढ़ती रहती है। बकरियों को आवश्यकतानुसार जगह न देने पर उनका स्वास्थ्य गिरता है, उनकी बढ़त कम हो जाती है तथा उत्पादन क्षमता में कमी आती है।
बकरियों को निम्नलिखित जगह की जरूरत पड़ती है :
उम्र | ढकी जगह की आवश्यकता (वर्ग मीटर में) | बाड़े की आवश्यकता (वर्ग मीटर में) |
3 महीने तक के बच्चे | 0.2-0.3 | 0.4-0.6 |
3-9 महीने तक के बच्चे | 0.6-0.75 | 1.2-1.5 |
9-12 महीने तक के बच्चे | 0.75-1.0 | 1.5-2.0 |
युवा बच्चे | 1.0 | 2.0 |
वयस्क बकरे | 1.5-2.0 | 3.0-4.0 |
ग्याभिन एवं दूध देने वाली बकरियाँ | 1.5 | 3.0 |
बकरियों को हवा के आने–जाने के लिये जगह की आवश्यकता :— पशुओं की आक्सीजन की जरूरत को पूरा करने के लिये, आवास के फर्श की नमी को सुखाने हेतु, आर्द्रता कम करने के लिये तथा आवास में पैदा हुई गैसों को बाहर निकालने हेतु हवा की जरूरत पड़ती है। दीवारों में हवा आने के लिए जो जगह बनायी जाती है उसी से आवास में रोशनी एवं धूप भी आती है। बकरी आवासों का हवादार होना अति आवश्यक है। मौसम के अनुसार हवा के आने–जाने की जगहों को कम ज्यादा किया जा सकता है।
मौसम | हवा के आने–जाने के लिये जगह की आवश्यकता |
सम मौसम | फर्श की 25 प्रतिशत जगह, हवा के आने–जाने के लिए दीवारों में बनाई जाये |
गर्म मौसम | फर्श की 70 प्रतिशत जगह, हवा के आने–जाने के लिए दीवारों में रखी जाये। दोपहर के आसपास इसे ढका जा सकता है। |
वर्षा का मौसम | लम्बाई वाली दीवारें पूरी खुली रखी जायें। |
सर्दी का मौसम | फर्श की 2 से 10 प्रतिशत जगह हवा के लिये दीवारों में बनाई जायें। |
आवास के अंदर हवा की गति बाहर की गति की 40 प्रतिशत ही रहती है। हवा आने वाली दिशा में 30 से 50 प्रतिशत जगह खुली रखी जाती है।
दिशा :- हमारे देश की जलवायु के लिये, पूर्व–पश्चिम दिशा के बकरी आवास, उत्तर–दक्षिण दिशा वाले आवास से अधिक आरामदायक होते हैं। पूर्व–पश्चिम दिशा के आवासों में जाड़ों में धूप अन्दर तक जाती है तथा गर्मी में धूप को आसानी से अन्दर जाने से रोका जा सकता है। दिशा तय करने में हवा बहने की दिशा पर भी विचार किया जाता है। यदि हवा बहने की दिशा पूर्व से पश्चिम की तरफ है तो बकरी आवास को हवा चलने की दिशा के 0 से 45 के कोण पर बनाया जा सकता है। अन्य दिशा में बकरी के आवास को हवा चलने की दिशा के 0 से 30 के कोण पर बनाया जा सकता है।
छत :– खुले आसमान के नीचे रखने के बजाय बकरियों को यदि एक ऐसी जगह पर रखा जाये जो कि केवल ऊपर से ढ़की हो तो उससे भी उनको राहत मिलती है। 30 प्रतिशत गर्मी ऊपर से आती है। ऊपर ढ़कने से यह गर्मी पशुओं तक नहीं पहुँच पाती। अधिकांशतः गाँवों में पशुओं के लिये छप्पर की छतें बनाई जाती है तथा बड़े प्रक्षेत्रों पर सीमेंट अथवा लोहे की जी.आई. नालीदार चद्दरों से पशुओं के बाड़े बनाये जाते हैं। वैज्ञानिक प्रयोगों से पता चला है कि एसबेस्टस अथवा लोहे की चद्दरों की तुलना में छप्पर गर्मी अथवा ठण्ड रोकने में ज्यादा अनुकूल है, पर छप्पर जल्दी खराब हो जाते हैं तथा इनमें आग इत्यादि लगने का भय बना रहता है। छप्पर पर मिट्टी के गारे, भूसे एवं तारकोल को मिलाकर लेप करके इसे सुधारा जा सकता है, जिससे कि ये जल्दी खराब नहीं हो, भीगे नहीं तथा आग भी देर से पकड़ें। प्रयोग से यह देखा गया है कि यह सुधरे छप्पर, अन्य छप्परों से ज्यादा अच्छे तथा गर्मी, ठण्ड तथा नमी को रोकने में सहायक होते हैं। आजकल बाजार में कई विकल्प उपलब्ध हैं। इनमें गर्मी तथा ठण्ड रोकने की क्षमता भी अच्छी है तथा ये बकरी आवास की छत बनाने के लिये काम में लाई जा सकती है। क्षेत्र में पाये जाने वाले सामानों से बनी जैसे– खपरैल, पत्तर इत्यादि अथवा पक्की छतें (ईटें, सीमेन्ट, सीमेन्ट कंक्रीट) भी काम में लाई जा सकती है। छत यदि एसबेस्टस या लोहे के चद्दरों की है तो उस पर 2″ से 4″ इंच मोटी छप्पर गर्मी में डाली जा सकती है। छत को दीवार से करीब एक मीटर आगे निकाल देना चाहिए, इससे धूप एवं वर्षा से बचाव किया जा सकता है।
दीवारे :- चौड़ाई वाली पूर्व एवं पश्चिम की दीवारें ऊपर तक ईटों की बनाना चाहिए। यदि सम्भव हो तो सीमेंट एवं बालू के गारे का प्रयोग करें। लम्बाई वाली उत्तर एवं दक्षिण की दीवारें जमीन से 75 से.मी. से 1 मीटर ऊँचाई पर बनाई जाती है। उसके बाद छत तक जाली लगा दी जाती है। इससे हवा की गति में कोई रूकावट नहीं आती। दीवार के ऊपर खुली जगह की ऊँचाई एवं लम्बाई का अनुपात 1/4 : 3/4 होना चाहिए।
फर्श :– बकरी आवासों का फर्श अधिकाशत: मिट्टी का ही होता है, जो बकरियो के पेशाब इत्यादि को सोख लेता है तथा ऊष्मा अवरोधक का भी कार्य करता है। बीच–बीच में ऊपर की मिट्टी पलट देनी चाहिए तथा वर्ष में एक बार ऊपरी मिट्टी को बदल देना चाहिए। वर्षा ऋतु के पहले मिट्टी को बदलना उचित है। मिट्टी बदलने के बाद फर्श पर चूने का छिड़काव उचित रहता है। वैसे भी कुछ समय के अन्तराल पर चूने का छिड़काव करते रहना चाहिए।
बाड़ा :- बकरियों का बाड़ा उनके छत वाले आवास से सटा हुआ होता है। बाड़ा चारो तरफ से घिरा होता है। 1.5 मीटर से 2 मीटर ऊँची 4″ की जाली (चैन लिंक) इस कार्य हेतु प्रयोग की जा सकती है। जाली लगाने हेतु प्रत्येक 2 से 3 मीटर की दूरी पर लकड़ी की बल्ली अथवा लोहे के खम्बे जमीन में गाड़े जाते है। जाली को सीधा रखने के लिये उसके ऊपरी एवं नीचे हिस्से में लोहे (जी.आई.) के मोटे तार डाले जा सकते है। बाँस एवं बल्लियों से भी बाड़े बनाये जा सकते हैं। बाड़े का क्षेत्रफल छत वाली जगह का दुगना रखा जाता है।
बकरी आवास की लम्बाई, चौड़ाई एवं ऊँचाई :- बकरी आवास की लम्बाई आवश्यकतानुसार रखी जा सकती है परन्तु हवादार बनाने हेतु चौड़ाई किसी भी हालात में 12 मीटर से ज्यादा नहीं रखनी चाहिए। चौड़ाई को जगह के अनुसार 6 मीटर से 8 मीटर के बीच में रखना उचित रहता है। इससे हवा के बहाव में कोई दिक्कत नहीं आती है। इसी तरह, आवास की ऊँचाई, किनारे पर 2.7 मीटर से कम नहीं रखना चाहिए। अधिकांशतः बकरी आवासों की लम्बाई 20 मीटर, चौड़ाई 6 मीटर तथा किनारे पर ऊँचाई 2.7 मीटर रखी जाती है।
ध्यान रखने योग्य अन्य बातें :- बकरी आवासों को ऊँची जगह पर बनाना चाहिए। वहाँ से वर्षा के जल के निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। मेमनों, गर्भवती एवं बीमार बकरियों के आवासों को शुरू में ही बनाना चाहिए जिससे उनका उचित ध्यान रखा जा सके। चारागाह अथवा चारा पैदा करने वाले खेत सबसे बाद में होने चाहिए। दो बकरी आवासों के बीच 8 मीटर का अंतर होना चाहिए जिससे कि हवा के प्रवाह में बाधा न हो। बकरी प्रक्षेत्र में पेड़, पौधे, झाड़ियाँ, घास इत्यादि को लगाना चाहिए जिससे कि उसके अंदर बहने वाली हवा ठण्डी हो। वैसे तो पौधे एवं झाडियाँ हवा के प्रवाह को रोकते हैं, पर यदि कम ऊँचाई के हों तथा आवास से 2 मीटर की दूरी पर हो तो यह हवा के प्रवाह को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होते हैं। इसी तरह प्रक्षेत्र में लगे पेड़ों की डालियाँ 3 मीटर की ऊँचाई तक काट देने से आवास के अंदर के प्रवाह में कोई दिक्कत नहीं आती है। पेड़ पौधे वातावरण को शुद्ध रखने में भी सहायक होते हैं। इनकी पत्तियाँ एवं घासें बकरियों के चारे के लिए भी काम में लाई जा सकती है।
आवास की छत पर सफेदी (चूना एवं सफेद सीमेंट बराबर मात्रा में मिलाकर) करा देने से गर्मी के मौसम में आवास कम गर्म होते है। इसी तरह यदि छत के ऊपर छप्पर डाल दिया जाये या फैलने वाली बेलें चढ़ा दी जावें तो आवास के अंदर गर्मी का प्रभाव कम हो जाता है। लोहे की चद्दरों वाले आवासों के ऊपर सफेद पेंट भी किया जा सकता है।
उपकरण :- बकरी के दाने तथा चारे में सबसे ज्यादा लागत लगती है। साथ ही सबसे ज्यादा नुकसान दाने, भूसे तथा चारे को रखने एवं उन्हें खिलाते समय होता है। अधिकांशतः बकरियों को भोजन ऐसे उपकरणों मे दिया जाता है जिसमें बकरियाँ या तो पैर डाल देती हैं या उनमें उनका पेशाब एवं मेंगनी चली जाती हैं। खाने के समय काफी दाना—चारा बाहर भी गिर जाता है। अधिकतर प्रचलित उपकरण या तो दाने या भूसे के लिये है अथवा चारे के लिये। इस विसंगतियों को दूर करने के लिए केन्द्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान ने कुछ ऐसे उपकरण बनाये हैं जिनमें दाना, भूसा एवं हरा चारा सभी कुछ एक साथ अथवा अलग–अलग खिलाया जा सकता है। इन उपकरणों में दाने चारे का नुकसान भी कम होता है तथा उसमें पेशाब अथवा मेंगनी नहीं रहती है। वयस्क जानवरों एवं बच्चों के लिये अलग–अलग तरह के उपकरण बनाये गये हैं। बच्चों के पानी पीने के लिये भी सुधरे उपकरण विकसित किये गये हैं।
षटकोणीय दाना–चारा उपकरण :- यह वयस्क जानवरों के दाना, भूसा एवं चारा खाने के लिये है। इस उपकरण को तीन भागो में विभक्त किया जा सकता है। आधार अथवा स्टैण्ड जो कि लौहे का बना होता है इसके ऊपर षटकोणीय दाना–चारा खाने का फीडिंग ट्रफ लगा होता है। फीडिंग ट्रफ के बीच में दाने, भूसे एवं चारे को बराबर फैलाने के लिये एक षटकोणीय नुकीला भाग ऊपर उठा देते हैं। यह जी. आई. की चद्दर का होता है। फीडिंग ट्रफ के ऊपर एक षटकोणीय रैक लगी होती है, जिसमें भूसा एवं हरा चारा रखा जाता है। इस उपकरण में 12 से 15 बकरे अथवा बकरियाँ दाना–चारा खा सकते हैं इसमें जानवर चारों ओर से खाते हैं। इसे एक छोटी कार्यशाला में चद्दरों एवं वैल्डिंग का कार्य करने वाले कारीगर बना सकते
आयताकार दाना चारा उपकरण :- षटकोणीय फीडर की तरह ही आयताकार दाना चारा उपकरण को तीन भागो में विभक्त किया जा सकता है। अंतर केवल यह है कि इसके सभी भाग आकार में आयताकार होते हैं। इस उपकरण में 9 से 12 बकरे अथवा बकरियाँ आराम से खा सकती है यह वयस्क पशुओं के लिये उपयोगी है। इसमें जानवर दो तरफ से खाते है। इसे चद्दरों एवं वैल्डिंग का काम करने वाले कारीगरों द्वारा बनाया जा सकता है।
बच्चो के दाना–चारे एवं जल देने के उपकरण :– ये उपकरण केवल दाना–पानी के लिये बनाये गये हैं, छ: महीने तक के बच्चों के लिये उपयुक्त हैं। इसमें दोनों तरफ से आठ से दस बच्चे खा सकते है। 3 महीने से कम उम्र के बच्चों के लिए लटकने वाले खाने के उपकरण कार्य में लाये जा सकते है। इन उपकरणों को बनाने के लिये, लोहे की चद्दर, सरिया, एंगिल, आयरन, पाइप इत्यादि की जरूरत पड़ती है। इन्हें चद्दर एवं वैल्डिंग का काम करने वाले मिस्त्री बना सकते हैं तथा लागत भी कम है।